The Fifth Chapter of First Book of Srimad Devi Bhagwat tells us the story of Lord Hayagreeva, a lesser known incarnation of Lord Vishnu. Below is the Hindi Translation of this Chapter...
ऋषि बोले -- हे सूत जी ! आप के यह आश्चर्यजनक वचन सुन कर हम सब के मन में अत्याधिक संदेह हो रहा हे. सब के स्वामी श्री जनार्धन माधव का सिर उनके शरीर से अलग हो गया !! और उस के बाद वे हयग्रीव कहलाये गये - अश्व मुख वाले . आह ! इस से अधिक और आश्चर्यजनक क्या हो सकता हे. जिनकी वेद भी प्रशंसा करते हैं, देवता भी जिसपर निर्भर हैं, जो सभी कारणों के भी कारण हैं, आदिदेव जगन्नाथ, आह ! यह कैसे हुआ कि उनका भी सिर कट गया ! हे परम बुद्धिमान ! इस वृत्तांत का विस्टा से वर्णन कीजिये.
सूत जी बोले -- हे मुनियों, देवों के देव, परम शक्तिशाली, विष्णु के महान कृत्य को ध्यान से सुनें. एक बार अनंत देव जनार्धन दस सहस्त्र वर्षों के सतत युद्ध के उपरान्त थक गए थे. तब भगवान एक मनोरम स्थान में पद्मासन में विराजमान हो, अपना सिर एक प्रत्यंचा चड़े हुए धनुष पर रखकर सो गए. उसी समय इन्द्र तथा अन्य देवों, ब्रहमा और महेश, ने एक यज्ञ प्रारम्भ किया. ऋषि बोले -- हे सूत जी ! आप के यह आश्चर्यजनक वचन सुन कर हम सब के मन में अत्याधिक संदेह हो रहा हे. सब के स्वामी श्री जनार्धन माधव का सिर उनके शरीर से अलग हो गया !! और उस के बाद वे हयग्रीव कहलाये गये - अश्व मुख वाले . आह ! इस से अधिक और आश्चर्यजनक क्या हो सकता हे. जिनकी वेद भी प्रशंसा करते हैं, देवता भी जिसपर निर्भर हैं, जो सभी कारणों के भी कारण हैं, आदिदेव जगन्नाथ, आह ! यह कैसे हुआ कि उनका भी सिर कट गया ! हे परम बुद्धिमान ! इस वृत्तांत का विस्टा से वर्णन कीजिये.
तब वे सब देवों के हित में यज्ञ की सफलता के लिए, सभी यज्ञों के स्वामी, भगवान जनार्धन के पास वैकुंठ में गए. वहाँ विष्णु को न पा कर उन्होंने ध्यान द्वारा उस स्थान को जाना जहां भगवान विष्णु विश्राम कर रहे थे. वहाँ जाकर उन्होंने देवों के देव भगवान विष्णु को योगनिद्रा में बेसुध देखा. उन्हें सोते हुए देखकर ब्रहमा, रूद्र और अन्य देवता चिंतित हो गए.
इस आदेश को सुनकर वामरी बोले -- "हे ब्रहमा ! मैं देवों के देव, लक्ष्मी के स्वामी, जगतगुरु की निद्रा में कैसे बाधा दाल सकता हूँ? किसी को गहरी नींद से उठाना, किसी के भाषण में बाधा डालना, किसी पति - पत्नी को पृथक करना, किसी माता से सन्तान को अलग करना, ये सब कर्म ब्रह्महत्या के अनुरूप हैं. इसलिए हे देव ! मैं देवदेव की निंद्रा कैसे भंग कर सकता हूँ. और मुझे धनुष काटने से क्या लाभ होगा. यदि किसी मनुष्य की कोई व्यक्तिगत रूचि हो तो वह पाप कर भी सकता है, यदि मेरा भी कोई लाभ हो तो मैं धनुष काटने को तैयार हूँ.
ब्रहमा बोले -- हम सब तुम्हें भी अपने यज्ञ में भाग देंगे, इसलिए अपना कार्य करो और विष्णु को उनकी निद्रा से जगा दो. होम के समय में जो भी घी होम - कुंड से बाहर गिरेगा, उस पर तुम्हारा अधिकार होगा, इसलिए शीघ्र अपना कार्य करो.
सूत जी बोले -- ब्रहमा के आदेश अनुसार वामरी ने धनुष के अग्रभाग, जिसपर वह भूमि पर टिका था, को काट दिया. तुरंत प्रत्यंचा टूट गयी और धनुष ऊपर उठ गया और एक भयानक आवाज हुई. देवता भयभीत हो गए और सम्पूर्ण जगत उत्तेजित हो गया. सागर में उफान आने लगे, जलचर चौंक उठे, तेज हवा चलने लगी, पर्वत हिलने लगे और अशुभ उल्का गिरने लगे. दिशाओं ने भयानक रूप धारण कर लिया और सूर्य अस्त हो गया. विपत्ति की इस घड़ी में चिंतित हो गए. हे सन्यासियों ! जिस समय देव इस चिंता में थे, देवदेव विष्णु का सिर मुकुट सहित गायब हो गया, और किसीको भी यह पता ना चल सका कि वह कहाँ गिरा है.
जब वह घोर अन्धकार मिटा, ब्रहमा और महादेव ने विष्णु के सिर - विहीन विकृत शरीर को देखा. विष्णु की उस बिना सिर के आकृति देखकर वे बहुत हैरान थे, वे चिंता के सागर में डूब गये और शोक से अभिभूत हो, जोर से रोना शुरू कर दिया. हे प्रभु! स्वामी हे!हे देवा देवा! हे अनन्त!क्या अप्रत्याशित असाधारण दुर्घटना आज हमारे लिए हुई है! हे देव ! आप को तो कोई छेद नहीं सकता, कोई इस प्रकार से काट सकता है, और ना ही जला सकता है, तब फिर आपका सिर गायब कैसे हो सकता है. क्या यह किसी की माया है. हे सर्व व्यापक ! आपकी ऐसी दशा होते देवता किसी प्रकार जीवित रह सकते हैं. हम सब अपने स्वार्थ के कारण रो रहे हैं, शायद यह सब इसी से हुआ है. यह किसी देत्य, यक्ष या राक्षस ने नहीं किया है. हे लक्ष्मी पति ! यह दोष हम किसे मड़ेगे? देवताओं ने स्वय ही अपनी हानि की है?
हे देवताओं के स्वामी ! देवता अब आश्रित हैं. ये आपके अधीन हैं. अब हम कहाँ जायें. अब हम क्या करें. अब मूड व मूर्ख देवताओं की रक्षा कौन करेगा. उसी समय शिव और अन्य देवों को रोता देखकर वेदों के ज्ञाता ब्रहस्पति इस प्रकार बोले -- "हे महाभागे ! अब इस प्रकार रोने और पछताने से क्या लाभ है. अब तुम्हें अपनी इस विपत्ति के निवारण के बारे विचार करना चाहिए. हे देवताओं के स्वामी ! भाग्य और कर्म दोनों समान हैं. यदि भाग्य से सफलता प्राप्त नहीं होती तो अपने प्रयास और गुणों से निश्चित ही सफलता प्राप्त होती है.
इन्द्र बोले -- तुम्हारे परिश्रम को धिक्कार है, जबकि हमारी आँखों के सामने भगवान विष्णु का सिर गायब हो गया. तुम्हारी बुद्धि और शक्ति को धिक्कार है, मेरे विचार से भाग्य ही सर्वोच है. ब्रहमा बोले -- शुभ या अशुभ, दैव की आज्ञा सब को माननी पडती है, कोई भी दैव को नकार नहीं सकता. इसमें कोई संदेह नहीं है की जो शरीर धारण कर्ता है उसे सुख और दुःख भुगतने ही पड़ते है. आह ! भाग्य की विडम्बना से ही भुत समय पहले शम्भु ने मेरा एक सिर काट दिया था. तथा एक श्राप के कारण उनका प्रजनांग कट गया था. उसी प्रकार आज भगवान विष्णु का सिर भी क्षीर सागर में गिर गया है. समय के प्रभाव से ही शचीपति इन्द्र को भी स्वर्ग त्याग कर मान सरोवर में रहना पड़ा था, और भी अनेक कष्ट सहने पड़े थे.
हे यशस्वी ! जब इन सब को दुःख भुगतना पड़ता है तो फिर संसार में ऐसा कौन है जिसे कष्ट नही होता. इसलिए अब शोक मत करो और अनंत महामाया, सब की माता, का ध्यान करें
, जो सब का आश्रय हैं, जो ब्रह्मविद्या का स्वरूप हैं, और जो गुणों से परे हैं, जो मूल प्रकृति हैं, और जो कि तीनों लोकों, सम्पूर्ण ब्रह्मांड और चर - अचर में व्याप्त है. अब वे ही हमारा कल्याण करेंगी. सूत जी बोले -- इस प्रकार देवताओं को कहकर, देव कार्य की सफलता के लिये वेदों को आदेश दिया.
ब्रहमा जी बोलें -- "हे वेद ! अब आप सब पूजनीय सर्वोच्च महा माया देवी की स्तुति करें, जो की ब्रह्मविद्या हैं, जो सभी कार्य सफल करती हैं, सभी रूपों में तिरोहित हैं". उनके वचन सुनकर समस्त वेद महामाया देवी की स्तुति करने लगे.
वेदों द्वारा स्तुति >>
सूत जी बोले -- इसप्रकार वेदों, उनके अंगों, सम-अंगों, द्वारा स्तुति किये जाने पर निर्गुण महेश्वरी महामाया देवी प्रसन्न हुई. उस समय सब को खुशी देने वाली आकाश वाणी सुने दी -- " हे देवो ! सब चिंता त्याग दो. तुम सब अमर हो. होश में आओ. मैं वेदों द्वारा की गयी स्तुति से अत्यंत प्रसन्न हूँ. जो भी मनुष्य मेरे इस स्तोत्र को श्रद्धा पूर्वक पड़ेगा उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होंगी. जो भी तीनों संध्याओं में इसे सुनेगा उसकी सभी विपत्तियां दूर होंगी और प्रसन्नता प्राप्त होगी. वेदों द्वारा गाया गया यह स्तोत्र वेद के ही समान है.
क्या इस संसार में कुछ भी बिना किसी कारण के होता है? अब सुनों हरि का सिर क्यों कट गया. बहुत पहले एक समय अपनी प्रिय पत्नी लक्ष्मी देवी का सुंदर मुख देख कर वे उन के समक्ष ही हंस पड़े.
इस पर लक्ष्मी देवी विचार करने लगी - "निश्चय ही श्री हरि ने मेरे मुख पर कुछ कुरूपता देखि हैं जिस कारण वे हंस रहे हैं. परन्तु ऐसा क्या कारण हैं कि उन्होंने यह कुरूपता पहले नीं देखी. और बिना किसी कुरूपता को देखे वे किस कारण से हंसेंगे. या हो सकता हैं कि उन्होंने किसी ओर सुंदर स्त्री को अपनी सह-पत्नी बना लिया है". इस प्रकार विचार करते-करते महालक्ष्मी क्रुद्ध हो गयी और धीरे धीरे तमोगुण के अधीन हो गयी. उसके बाद, भाग्य से, ईश्वरीय कार्य की पूर्ती हेतु, स्त्यादिक तमस-शक्ति ने उनके शरीर में प्रवेश किया तथा वे क्रुद्ध हो बोली - "तुम्हारा सिर गिर जाये". इस प्रकार बिना किसी शुभ-अशुभ का विचार किये लक्ष्मी ने श्राप दिया जिस कारण उन्हें यह कष्ट उठाना पड़ा है.
झूठ, व्यर्थ का साहस, शठता, मूर्खता, अधीरता, अधिक लोभ, अशुद्धता और अशिष्टता स्त्री का प्राकृतिक गुण है. इसी श्राप के कारण वसुदेव का सिर कट गया है. हे देवताओ ! इस घटना का एक कारण ओर भी है. प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध देत्य - ह्यग्रीव ने सरस्वती के तट पर कठोर तपस्या की.
सभी प्रकार के भोग त्याग कर, इन्द्रियों को वश में कर ओर भोजन का त्याग कर और मेरे सम्पुर्ण आभूषणों से सुसज्जित परम शक्ति रूप ध्यान करते हुए उस देत्य ने एक अक्षरी माया बीज मंत्र का जप करते हुए एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की. मैं भी उसी तामसी रूप में शेर पर सवार हो उसके समक्ष प्रकट हुई और बोली -- "हे यशस्वी ! हे सुव्रत का पालन करने वाले ! मैं तुम्हें वर देने के लिये आयी हूँ". देवी के यह कथन सुन कर वह देत्य शीघ्र उठ खड़ा हुआ और देवी के चरणों में दंड के समान गिर गया, उनकी परिक्रमा की, मेरे रूप को देख उसकी आँखें प्रेमभाव से प्रसन्न हो गयी और उनमें आँसू उमड़ आये, तथा वह मेरी स्तुति करने लगा.
हयग्रीव बोला -- "देवी महामाये को प्रणाम हे, मैं इस ब्रह्मांड की रचयिता, पालक और संहारक को झुक कर प्रणाम करता हूँ. अपने भक्तों पर कृपा करने में दक्ष, भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाली, आपको प्रणाम है. हे देवी, मुक्ति की दाता, हे मंगलमयी देवी, मैं आपको प्रणाम करता हूँ. आप ही पन्च-तत्वों - प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश - की कारण हो. आप ही रूप, रस, गंध, ध्वनि और स्पर्श का भी कारण हो. हे महेश्वरी ! आपने ही पांच जननेंद्रियाँ तथा पांच कर्मेन्द्रियों की रचना की है.
देवी बोली -- हे बालक ! मैं तुम्हारी अद्भुत तपस्या और श्रद्धा से संतुष्ट हूँ, तुम क्या वर चाहते हो. मैं तुम्हारी इच्छा अनुसार वर दूँगी". हयग्रीव बोला -- हे माता ! मुझे वर दें कि मृत्यु कभी मेरे निकट ना आये और मैं सुर तथा असुरों से अजेय रहूँ, मैं अमर हो जाऊं.
देवी बोली -- "मृत्यु के बाद जन्म तथा जन्म के उपरान्त मृत्यु होती है, यह अपरिहार्य है. यह संसार का नियम है, इसका उलंघ्न कभी नहीं हो सकता. हे श्रेष्ट राक्षस ! इसप्रकार मृत्यु को निश्चित जानकर और विचार कर कोई अन्य वर मांगों".
हयग्रीव बोला -- "हे ब्रह्मांड कि माता ! यदि आप मुझे अमरता का वरदान नहीं देना चाहती तो मुझे वर दीजिए कि मेरी मृत्यु केवल उसी से हो जिसका मुख अश्व का हो. मुझपर दया कीजिये और मेरा इच्छित वर प्रदान करें.
"हे महा भागे ! घर जाओ और अपने साम्राज्य का शासन करो, तुम्हारी मृत्यु ओर किसी से नहीं अपितु केवल अश्व के समान मुख वाले से ही होगी". इस प्रकार वर देकर देवी चली गयी. हयग्रीव भी अपने राज्य चला गया, तभी से वह देत्य देवों और मुनियों को पीड़ित कर रहा है. तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं जो उसको मार सके. इसलिए अब विश्वकर्मा से खो कि वे विष्णु के सिर-विहीन शरीर पर अश्व का मुंह स्थापित कर दें. तब हयग्रीव भगवान उस पापी असुर को मार कर देवताओं का हित करेंगे.
सूत जी बोले -- देवताओं से इसप्रकार बोलकर देवी मौन हो गयी. देवता प्रसन्न होगये और विश्वकर्मा से बोले - कृपा कर यह देव-कार्य करो और विष्णु का सिर लगा दो. वे हयग्रीव बन उस अदम्य असुर का वध करेंगे". सूतजी बोले -- यह वचन सुनकर विश्वकर्मा ने तुरंत अपने फरसे से घोड़े का सिर काट कर विष्णु जी के शरीर पर लगा दिया. महामाया की कृपा से घोड़े के मुख वाले ( हयग्रीव ) बन गये. तब कुछ दिनों उपरान्त भगवान हयग्रीव ने उस देव्त्सों कर शत्रु, अहंकारी दानव का अपनी शक्ति द्वारा वध कर दिया. जो मनुष्य इस उत्कृष्ट उपाख्यान को सुनता है, वह निश्चित ही सब कष्टों से मुक्ति पा जाता है, देवी महामाया के इस उत्तम, शुद्ध तथा पाप-नाशक वृत्तांत को जो भी सुनने अथवा पड़ने से सब प्रकार की सम्पत्ति की प्राप्ति होती है.
इस पर लक्ष्मी देवी विचार करने लगी - "निश्चय ही श्री हरि ने मेरे मुख पर कुछ कुरूपता देखि हैं जिस कारण वे हंस रहे हैं. परन्तु ऐसा क्या कारण हैं कि उन्होंने यह कुरूपता पहले नीं देखी. और बिना किसी कुरूपता को देखे वे किस कारण से हंसेंगे. या हो सकता हैं कि उन्होंने किसी ओर सुंदर स्त्री को अपनी सह-पत्नी बना लिया है". इस प्रकार विचार करते-करते महालक्ष्मी क्रुद्ध हो गयी और धीरे धीरे तमोगुण के अधीन हो गयी. उसके बाद, भाग्य से, ईश्वरीय कार्य की पूर्ती हेतु, स्त्यादिक तमस-शक्ति ने उनके शरीर में प्रवेश किया तथा वे क्रुद्ध हो बोली - "तुम्हारा सिर गिर जाये". इस प्रकार बिना किसी शुभ-अशुभ का विचार किये लक्ष्मी ने श्राप दिया जिस कारण उन्हें यह कष्ट उठाना पड़ा है.
झूठ, व्यर्थ का साहस, शठता, मूर्खता, अधीरता, अधिक लोभ, अशुद्धता और अशिष्टता स्त्री का प्राकृतिक गुण है. इसी श्राप के कारण वसुदेव का सिर कट गया है. हे देवताओ ! इस घटना का एक कारण ओर भी है. प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध देत्य - ह्यग्रीव ने सरस्वती के तट पर कठोर तपस्या की.
सभी प्रकार के भोग त्याग कर, इन्द्रियों को वश में कर ओर भोजन का त्याग कर और मेरे सम्पुर्ण आभूषणों से सुसज्जित परम शक्ति रूप ध्यान करते हुए उस देत्य ने एक अक्षरी माया बीज मंत्र का जप करते हुए एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की. मैं भी उसी तामसी रूप में शेर पर सवार हो उसके समक्ष प्रकट हुई और बोली -- "हे यशस्वी ! हे सुव्रत का पालन करने वाले ! मैं तुम्हें वर देने के लिये आयी हूँ". देवी के यह कथन सुन कर वह देत्य शीघ्र उठ खड़ा हुआ और देवी के चरणों में दंड के समान गिर गया, उनकी परिक्रमा की, मेरे रूप को देख उसकी आँखें प्रेमभाव से प्रसन्न हो गयी और उनमें आँसू उमड़ आये, तथा वह मेरी स्तुति करने लगा.
हयग्रीव बोला -- "देवी महामाये को प्रणाम हे, मैं इस ब्रह्मांड की रचयिता, पालक और संहारक को झुक कर प्रणाम करता हूँ. अपने भक्तों पर कृपा करने में दक्ष, भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाली, आपको प्रणाम है. हे देवी, मुक्ति की दाता, हे मंगलमयी देवी, मैं आपको प्रणाम करता हूँ. आप ही पन्च-तत्वों - प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश - की कारण हो. आप ही रूप, रस, गंध, ध्वनि और स्पर्श का भी कारण हो. हे महेश्वरी ! आपने ही पांच जननेंद्रियाँ तथा पांच कर्मेन्द्रियों की रचना की है.
देवी बोली -- हे बालक ! मैं तुम्हारी अद्भुत तपस्या और श्रद्धा से संतुष्ट हूँ, तुम क्या वर चाहते हो. मैं तुम्हारी इच्छा अनुसार वर दूँगी". हयग्रीव बोला -- हे माता ! मुझे वर दें कि मृत्यु कभी मेरे निकट ना आये और मैं सुर तथा असुरों से अजेय रहूँ, मैं अमर हो जाऊं.
देवी बोली -- "मृत्यु के बाद जन्म तथा जन्म के उपरान्त मृत्यु होती है, यह अपरिहार्य है. यह संसार का नियम है, इसका उलंघ्न कभी नहीं हो सकता. हे श्रेष्ट राक्षस ! इसप्रकार मृत्यु को निश्चित जानकर और विचार कर कोई अन्य वर मांगों".
हयग्रीव बोला -- "हे ब्रह्मांड कि माता ! यदि आप मुझे अमरता का वरदान नहीं देना चाहती तो मुझे वर दीजिए कि मेरी मृत्यु केवल उसी से हो जिसका मुख अश्व का हो. मुझपर दया कीजिये और मेरा इच्छित वर प्रदान करें.
"हे महा भागे ! घर जाओ और अपने साम्राज्य का शासन करो, तुम्हारी मृत्यु ओर किसी से नहीं अपितु केवल अश्व के समान मुख वाले से ही होगी". इस प्रकार वर देकर देवी चली गयी. हयग्रीव भी अपने राज्य चला गया, तभी से वह देत्य देवों और मुनियों को पीड़ित कर रहा है. तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं जो उसको मार सके. इसलिए अब विश्वकर्मा से खो कि वे विष्णु के सिर-विहीन शरीर पर अश्व का मुंह स्थापित कर दें. तब हयग्रीव भगवान उस पापी असुर को मार कर देवताओं का हित करेंगे.
सूत जी बोले -- देवताओं से इसप्रकार बोलकर देवी मौन हो गयी. देवता प्रसन्न होगये और विश्वकर्मा से बोले - कृपा कर यह देव-कार्य करो और विष्णु का सिर लगा दो. वे हयग्रीव बन उस अदम्य असुर का वध करेंगे". सूतजी बोले -- यह वचन सुनकर विश्वकर्मा ने तुरंत अपने फरसे से घोड़े का सिर काट कर विष्णु जी के शरीर पर लगा दिया. महामाया की कृपा से घोड़े के मुख वाले ( हयग्रीव ) बन गये. तब कुछ दिनों उपरान्त भगवान हयग्रीव ने उस देव्त्सों कर शत्रु, अहंकारी दानव का अपनी शक्ति द्वारा वध कर दिया. जो मनुष्य इस उत्कृष्ट उपाख्यान को सुनता है, वह निश्चित ही सब कष्टों से मुक्ति पा जाता है, देवी महामाया के इस उत्तम, शुद्ध तथा पाप-नाशक वृत्तांत को जो भी सुनने अथवा पड़ने से सब प्रकार की सम्पत्ति की प्राप्ति होती है.
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