Tuesday, November 5, 2013

ध्रुव द्वारा भगवान् की स्तुति || Vishnu Stuti by Dhruva

विष्णु पुराण >> प्रथम अंश >> बारहवां अध्याय >>



ध्रुव ने कहा -- भगवन् ! आप यदि मेरी तपस्या से संतुष्ट हैं तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मझे यही वर दीजिये [ जिससे मैं स्तुति कर सकूं ]. [ हे देव ! जिनकी गति ब्रह्मा आदि वेदज्ञजन भी नही जानते; उन्हीं आपका मैं बालक कैसे स्तवन कर सकता हूँ. किन्तु हे परम प्रभो ! आपकी भक्ति से द्रवीभूत हुआ मेरा चित आपके चरणों में स्तुति करने में प्रवृत हो रहा है. अत: आप इसे उसके लिए बुद्धि प्रदान कीजिये.


श्री पराशरजी बोले – हे द्विजवर्य ! तब जगत्पति श्री गोविन्द ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपाद के पुत्र को अपने [वेदमय] शंख के अंत भाग से छू दिया. तब तो एक क्षण में ही वह राजकुमार प्रसन्न मुख से अति विनीत हो सर्वभूताधिष्थान श्री अच्युत की स्तुति करने लगा. 

Monday, November 4, 2013

अजामिल उपाख्यान में धर्म का निरूपण || Description of DHARMA in Story of Ajamil





भागवत पुराण > छठा स्कन्द > प्रथम व् द्वितीय अध्याय >>

भगवान के पार्षदों ने कहा – यमदूतों! यदि तुमलोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण तथा धर्म का तत्व सुनाओ. दंड किस प्रकार दिया जाता है? दंड का पात्र कौन है? मनुष्यों में सभी पापाचारी दंडनीय हैं या उन में से कुछ ही?
 यमदूतों ने कहा – वेदों में जिन कर्मों का विधान किया गया है वे धर्म हैं और जिन का निषेद किया गया है वे अधर्म हैं. वेद स्वय भगवान के स्वरूप हैं. वे उनके स्वाभाविक श्वास और प्रश्वास और स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं – ऐसा हमने सुना है. जगत के रजोमय, सत्वमय और तमोमय – सभी पदार्थ सभी प्राणी अपने परम आश्रय भगवान में ही स्थित रहते हैं. वेद ही उनके गुण, नाम कर्म और रूप आदि के अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं. जीव शरीर और मनोवृतियों से जितने कर्म करता है, उनके साक्षी रहते हैं – सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशायें, जल, पृथ्वी, काल और धर्म. इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता है और तब दण्ड के पात्र का निर्णय होता है. पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने अपने कर्मों के अनुसार दंडनीय होते हैं. निष्पाप पुरुषों! जो प्राणी कर्म करते हैं उनका गुणों से सम्बन्ध रहता ही है. इसीलिए सभी के कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देह्वान होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नही सकता. इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में  उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है. देवशिरोमणियों ! सत्व, रज और तम – इन तीन गुणों के भेद के कारण इस लोक में तीन प्रकार के प्राणी दीख पड़ते हैं – पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य – पाप दोनों से युक्त, अथवा सुखी, दुखी और सुख-दुःख दोनों से युक्त, वैसे ही परलोक में भी उनकी त्रिविधिता का अनुमान किया जाता है.