Sunday, October 14, 2012

ब्रज भूमि का महत्व | The Significance of Braj

ब्रज भूमि का महत्व 

( भागवत पुराण महात्म्य - प्रथम अध्याय )



शांडिल्य जी ने कहा - प्रिय परीक्षित और बज्रनाभ ! मैं तुम लोगों से ब्रज भूमि का रहस्य बतलाता हूँ। तुम दतचित हो कर सुनो। 'ब्रज' शब्द का अर्थ है - व्याप्ति। इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण इस भूमि का नाम 'ब्रज' पड़ा है। ।। १९ ।।

सत्व, रज, तम -- इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रहम है, वही व्यापक है। इसलिए उसे 'ब्रज' कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवंमुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं। ।। २० ।।
इस परब्रह्मस्वरूप ब्रजधाम में नन्दनन्दन भगवान श्री कृष्ण का निवास है। उनका एक एक अंग सच्चिदानन्दस्वरूप है। वे आत्माराम और आप्तकाम हैं. प्रेम रस में डूबे हुए रसिकजन ही उनका नौभाव करते हैं। || २१ ||

भगवान श्री कृष्ण की आत्मा हैं -- राधिका; उनसे रमण करने के कारण ही रहस्य रस के मर्मझ पुरुष उन्हें आत्माराम कहते हैं। || २२ ||

काम शब्द का अर्थ है कामना -- अभिलाषा . ब्रज में भगवान श्री कृष्ण के वांछित पदार्थ हैं - गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला - विहार आदि; वे सब के सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसी से श्री कृष्ण को 'आप्तकाम' खा गया है। || २३ ||


भगवान श्री कृष्ण की यह रहस्य लीला प्रकृति से परे है। वे जिस समय प्रकृति के साथ खेलने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं। || २४ ||

प्रकृति के साथ होने वाली लीला में ही रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्तिथि और प्रलय की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान की लीला दो प्रकार की होती है -- एक वास्त्विकी और और दूसरी व्याव्हारिकी। || २५ ||

वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है -- उसे भगवान और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है वह व्याव्हारिकी लीला है। वास्तवी लीला के बिना व्याव्हारिकी लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्याव्हारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता। || २६ ||

तुम दोनों भगवान की जिस लीला को देख रहे हो वह व्याव्हारिकी लीला है। यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीला के अंतर्गत हैं। इसी पृथ्वी पर यह मथुरामंडल है। || २७ ||

यहीं वह ब्रज भूमि है, जिसमें वह भगवान की वास्तवी रहस्य - लीला गुप्त रूप से होती रहती है। वह कभी कभी प्रेमपूर्ण हृदय वाले रसिक भक्तों को सब और दिखने लगती है। || २८ ||

कभी अट्ठाईसवें द्वापर के अंत में जब भगवान की रहस्य लीला के अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं, जैसा कि इस समय भी कुछ काल पहले हुए थे, उस समय भगवान अपने अंतरंग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं। उनके अवतार का यह प्रयोजन होता है कि रहस्य लीला के अधिकारी भक्तजन भी अंतरंग परिकरों के साथ सम्मलित होकर लीला रस का आस्वादन कर सकें। इस प्रकार जब भगवान अवतार ग्रहण करते हैं, उस समय भगवान के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि भी सब और अवतार लेतें हैं। || २९ - ३० ||

अभी अभी जो अवतार हुआ था, उसमें भगवान अपने सभी प्रेमियों की अभिलाषाएँ पूर्ण करके अब अंतर्धान हो चुके हैं। इससे यह निश्चय होता है कि यहाँ पहले तीन प्रकार के भक्तजन उपस्थित थे, इसमें संदेह नही है। || ३१ ||

उन तीनों में प्रथम तो उनकी श्रेंणी है, जो भगवान के नित्य अंतरंग पार्षद हैं -- जिनका भगवान से कभी वियोग होता ही नहीं है। दूसरे वे है, जो एकमात्र भगवान को पाने कि इच्छा रखते हैं -- उनकी अंतरंग लीला में प्रवेश चाहते हैं। तीसरी श्रेंणी में देवता आदि हैं. इनमें से जो देवता आदि के अंश से अवतीर्ण हुए थे, उन्हें भगवान ने ब्रजभूमि से हटाकर पहले ही द्वारका पहुंचा दिया था। || ३२ ||

फिर भगवान ने ब्राह्मण के श्राप से उत्पन्न मूसल को निमित बनाकर यदुकुल में अवतीर्ण देवताओं को स्वर्ग में भेज दिया और पुनः अपने अपने अधिकार पर स्थापित कर दिया। तथा जिन्हें एकमात्र भगवान को पाने की इच्छा थी उन्हें प्रेमानंदस्वरूप बनाकर श्री कृष्ण ने सदा के लिए अपने नित्य अंतरंग पार्षदों में सम्मलित कर लिया। जो नित्य पार्षद हैं, वे यद्यपि यहाँ गुप्तरूप से होने वाली नित्यलीला में सदा ही रहते हैं, परन्तु जो उनके दर्शन के अधिकारी नहीं हैं, ऐसे पुरुषों के लिए वे भी अदृश्य हो गए। || ३३ - ३४ ||

जो लोग व्यवहारिक लीला में स्थित हैं, वे नित्यलीला का दर्शन पाने के अधिकारी नहीं हैं; इसलिए यहाँ आने वालों को सब और निर्जन वन -- सूना ही सूना दिखाई देता है, क्योंकि वह वस्त्विकी लीला में स्थित भक्त जनों को नहीं देख सकते। || ३५ ||

इसलिए वज्रनाभ! तुम्हीं तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए. तुम मेरी आज्ञा से यहाँ भुत से गाँव बसाओ; इससे निश्चय ही तुम्हारे मनोरथों की सिद्धि होगी. भगवन श्री कृष्ण ने जहां जैसी लीला की है, उसके अनुसार उस स्थान का नाम रखकर तुम अनेकों गाँव बसाओ और इस प्रकार दिव्य ब्रजभूमि का भली भाँती सेवन करते रहो. || ३७ ||

गोवर्धन, दीर्घपुर, मथुरा, महावन (गोकुल), नंदीग्राम और बृह्त्सानु (बरसाना) आदि में तुम्हें अपने लिए छावनी बनवानी चाहिए. || ३८ ||

उन उन स्थानों में रहकर भगवान की लीला के स्थल नदी, पर्वत, घाटी, सरोवर और कुंड तथा कुंजवन का सेवन करते रहना चाहिए। ऐसा करनेसे तुम्हारे राज्य में प्रजा भुत ही सम्पन्न होगी और तुम भी अत्यंत प्रसन्न रहोगे। || ३९ ||
यह ब्रज भूमि सच्चिदानन्दमयी है, अत: तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस भूमि का सेवन करना चाहिए. मैं आशीर्वाद देता हूँ। मेरी कृपा से भगवान की लीला के जितने भी स्थल हैं, सबकी तुम्हें ठीक - ठीक पहचान हो जायेगी। || ४० ||

वज्रनाभ! इस ब्रजभूमि का सेवन करते रहने से तुम्हें किसी दिन उद्धव जी मिल जायेंगें। फिर तो अपने माताओं सहित तुम उन्हीं से इस भूमि का तथा भगवान की लीला का रहस्य भी जान लोगे। || ४१ ||

मुनिवर शांडिल्यजी उन दोनों को समझाकर भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करते हुए अपने आश्रम पर चले गए. उनकी बातें सुनकर राजा परीक्षित और वज्रनाभ दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए. || ४२ ||

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