Wishing all readers a very Happy and Prosperous Janamashtmi... Here's the description of the birth of Shri Krishna as described in Vishnu Puran
Below is the English Translation of the same Chapter from Vishnu Puran
श्री विष्णु पुराण > पंचम अंश > तीसरा अध्याय >
श्री पराशर जी बोले - हे मैत्रेय ! देवताओ से इस प्रकार स्तुति की जाती हुई देवकी जी ने संसार की रक्षा के कारण भगवान पुन्द्रिकाक्ष को गर्भ में धारण किया [[१]] तदनन्तर सम्पूर्ण संसार रूप कमल को विकसित करनेके लिए देवकी रूप पूर्व संध्या में महात्मा अच्युत रूप सूर्य देव का आविर्भाव हुआ [[ २ ]] चन्द्रमा की चांदनी के सामान भगवान का जन्मदिन सम्पूर्ण जगत को आह्लादित करने वाला हुआ और उस दिन सभी दिशायें निर्मल हो गयी [[ ३ ]]
श्री जनार्दन के जन्म लेने पर संतजनों को परम संतोष हुआ, प्रचंड वायु शांत हो गया और नदियाँ अत्यंत स्व्छ्छ हो गयी [[ ४ ]] समुद्रगण अपने घोष से बाजे बजने लगे, गन्धर्वराज गान करने लगे और अप्सराएं नाचने लगी [[ ५ ]] श्री जनार्दन के प्रकट होने पर आकाशगामी देवगण पृथ्वी पर पुष्प बरसाने लगे तथा शांत हुए यज्ञाग्नि फिर प्रज्वलित हो गए [[ ६ ]] हे द्विज ! अर्धरात्रि के समय सर्वाधार भगवान जनार्धन के आविर्भूत होने पर पुष्प वर्ष करते हुए मेघगण मंद मंद गर्जना करने लगे [[ ७ ]] उन्हें खिले हुए कमलदल की सी आभा वाले, चतुर्भुज और वक्ष:स्थल में श्रीवत्स चिन्ह सहित उत्पन हुए देख अंक आनकदुदुम्भी वसुदेव जी स्तुति करने लगे [[ ८ ]] हे द्विजोत्तम ! महामति वसुदेव जी ने प्रसाद युक्त वचनों से भगवान की स्तुति क्र कंस से भयभीत रहनेके कारण इस प्रकार निवेदन किया [[ ९ ]]
वसुदेव जी बोले - हे देवदेवेश्वर ! यद्यपि आप साक्षात परमेश्वर प्रकट हुए हैं, तथापि हे देव ! मुझ पर कृपा करके अब शंख - चक्र - गदाधारी दिव्य रूप का उपसंहार कीजिये [[ १० ]] हे देव, यह पता लगते ही कि आप मेरे इस गृह में अवतीर्ण हुए हैं, कंस इसी समय मेरा सर्वनाश कर देगा [[ ११ ]]देवकी जी बोली - जो अनंत रूप और अखिल विश्व स्वरूप हैं, जो गर्भ में स्थित होकर भी अपने शरीर से सम्पूर्ण लोकों को धारण करते हैं तथा जिन्होंने अपनी माया से ही बाल रूप धारण किया है वे देव देव हम पर प्रसन्न हों [[ १२ ]] हे सर्वात्मन आप अपने इस चतुर्भुज रूप का उपसंहार कीजिये | भगवान, यह राक्षस के अंश से उत्पन कंस आपके इस अवतार का वृत्तांत न जानने पाए [[ १३ ]]
श्री भगवान् बोले - पूर्व जन्म में तूने जो पुत्र की कामना से मुझसे पुत्र रूप में उत्पन्न होने के लिए प्रार्थना की थी, आज मैंने तेरे गर्भ से जन्म लिया है -- इस से तेरी वः कामना पूर्ण हो गयी [[ १४ ]]
श्री पराशर जी बोले - हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर भगवान् मौन हो गए और वसुदेव जी भी उन्हें उसी रात्रि में ही लेकर बाहर निकले [[ १५ ]] वसुदेव जी के बाहर जाते समय कारागृहरक्षक और मथुरा के द्वारपाल योगनिद्रा के प्रभाव से अचेत हो गए [[ १६ ]] उस रात्रि के समय वर्ष करते हुए मेघों की जलराशि को अपने फणों से रोक कर श्री शेष जी आनक दुदुम्भी के पीछे पीछे चले [[ १७ ]] भगवान् विष्णु को ले जाते हुए वसुदेव जी नाना प्रकार के सैकड़ौ भंवरों से भरी हुई अत्यंत गम्भीर यमुना जी को घुटन तक रख कर ही पार कर गए [[ १८ ]] उन्होंने वहां यमुनाजी के तट पर ही कंस को कर देने के ल्लिये आये हुए नन्द आदि वृद्ध गोपों को भी देखा [[ १९ ]] हे मैत्रेय ! इसी समय योग निद्रा के प्रबाह्व से सब मनुष्यों के मोहित हो आने पर यशोदा ने भी उसी कन्या को जन्म दिया [[ २० ]] तब अतिशय कान्तिमान वसुदेव जी भी उस बालक को सुला कर और कन्या को लेकर तुरंत यशोदा के शयन कक्ष से चले आये [[ २१ ]] तब यशोदा ने जागने पर देखा कि उसके एक नीलकमल दल के सामान श्यामवर्ण पुत्र उत्त्पन हुआ है तो उसे अत्यंत प्रसन्ता हुई [[ २२ ]] इधर वसुदेव जी ने कन्या को ले जाकर अपने महल में देवकी के शयन - गृह में सुला दिया और पूर्ववत स्थित हो गए [[ २३ ]]
हे द्विज ! तदनन्तर बालक के रोने का शब्द सुनकर कारागृह रक्षक सहसा उठ खड़े हुए और देवकी के सन्तान उत्पन होने का वृत्तांत कंस को सुना दिया [[ २४ ]] यह सुनते ही नस ने तुरंत जाकर देवकी के रुंधे हुए कंठ से 'छोड़ छोड़' --- ऐसा कहकर रोकने पर भी उस बालिका को पकड़ लिया और उसे एक शिला पर पटक दिया | उसके पटकते ही वः आकाश में स्थित हो गयी और उसने शस्त्र युक्त एक महान अष्टभुज रूप धारण कर लिया [[ २५ - २६ ]]तब उसने ऊंचे स्वर से अट्टहास किया और कंस से रोषपूर्वक कहा - ' अरे कंस ! मुझे पटकने से तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? जो तेरा वध करेगा उसने तो पहले ही जन्म ले लिया है देवताओं के सर्वस्व वे हरि ही तुम्हारे कालनेमि रूप पूर्व जन्म में भी काल थे | अत: ऐसा जानकर तू शीघ्र ही अपने हित का उपाय कर' [[ २७ - २८ ]]ऐसा कहकर वह दिव्य माला और चन्दन आदि से विभूषिता तथा सिद्धगण द्वारा स्तुति की जाती हुई देवी भोजराज कंस के देखते देखते आकाश मार्ग से चली गयी [[ २९ ]]
Below is the English Translation of the same Chapter from Vishnu Puran
Parasara said ;—Being thus eulogized by the celestials, Devaki conceived in her womb the Lotus-eyed deity—the saviour of the universe. The sun of Achyuta rose in the dawn of Devaki, to cause the lotus-petal of the universe to expand. On the day of his birth, all the quarters were lighted up with joy and it gave delight to all people like unto the rays of the moon.
The pious obtained new delight; the strong wind were pacified and the river flowed silently when Janardana was about to be born. The oceans made music with their murmurings, the Gandharbas began to sing and the Apsaras began to dance. At the time of Janardana's birth the celestials, stationed in the sky, began to pour flowers and the holy fires glowed with a mild flame. At midnight, when the supporter of all was about to be born, the clouds began to emit low sounds and pour down rain of flowers.
As soon as Anakadundhubhi saw the child, looking like fall-blown lotus-petals, having four arras and the mystic mark Srivatsa on his breast -, he began to chant his glories in terms of love and respect and represented the fears he entertained of Kansa. Vasudeva said. 'I have known thee, O sovereign Lord of the celestials, thou the holder of conch, discus and mace. Be pleased to withhold this celestial’s form, for Kansa will surely destroy me when he will know that thou hast descended in my dwelling." Devaki said.—"God of gods, who are identical with all things, in whose Person all the religions of the world exist and who, by illusion, hast assumed the condition of an infant, have pity on me, withhold thy four-armed shape. Let not Kansa, the wicked son of Diti, know of this birth.
To this Bhagavat replied "0 worshipful dame, I was worshipped by thee before to be born as thy son, Thy prayers have now been granted and I am now born as thy son.'' So saying he was silent and Vasudeva, taking the baby, went out the same night. The guards and gate-keepers of Mathura were all charmed by Yoganidrá and none of them obstructed the passage of Anakadundhubhi. It was raining heavily at that time and the many-headed serpent Sesha followed vasudeva spreading his hoods above their heads. And when he, with the child in his arms, crossed the Yamuna, deep as it was and dangerous with numerous whirlpools, the waters were silent and rose not above knee. On the bank he saw Nanda and others who had come there to bring tribute to Kansa, but they did not see him. At that time Yashoda was also influenced by Yoganidra,whom she had given birth as her daughter and whom the wise Vasudeva took up, placing his son in her place by the side of the mother. He then speedily came back home. When Yashoda awoke, she found she had been delivered of a boy as black as the dark lotus-leaves; and she was greatly delighted.
Vasudeva, taking the female child of Yasoda, reached his house unperceived and placed the child in the bed of Devaki. He then remained as usual. The guards were awakened by the cry of the new-born baby and starting up they informed Kansa that Devaki had given birth to a child. Kansa immediately went to the house of Vasudeva where he got hold of the infant. Devaki faintingly prevented crying out again and again—"Do not destroy it Do not destroy it" Kansa dashed it against a stone; it at once went up to the sky and expanded into a gigantic figure having eight arms each bearing a formidable weapon, This terrible figure laughed and said to Kansa. "What benefit have you derived, Kansa, by hurling me to the ground? He is born, who shall destroy thee, the mighty one amongst the celestials, who was formerly the destroyer, considering this do thou accomplish what shall tend to ‘thy welfare. Having said this, the Goddess, decorated with heavenly unguents and garlands, and glorified by the spirits of the air, disappeared from the sight of the king of the Bhoja."
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