भविष्य पुराण > ब्राह्मापर्व > अध्याय १ - २
सुमन्तु मुनि पुण: बोले – हे राजन ! अब मैं भूतसर्ग अर्थात समस्त प्रणियों की
उत्त्पति का वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से सभी पापों की निवृति हो जाती है और
मनुष्य परम शांति को प्राप्त करता है.
हे तात ! पूर्व काल में यह सारा संसार अंधकार से व्याप्त था, कोई पदार्थ
द्रष्टिगत नहीं होता था, अविज्ञेय था, अतर्क्य था और प्रसुप्त था. उस समय
अतीन्द्रिय और सर्वभूतमय उस परब्रह्म भगवान भास्कर ने अपने शरीर से नानाविध सृष्टि
करने की इच्छा की और सर्वप्रथम परमात्मा ने जल को उत्त्पन्न किया तथा उसमें अपने
वीर्य रूप शक्ति का आधान किया. इससे देवता, असुर, मनुष्य आदि सम्पूर्ण जगत
उत्त्पन्न हुआ. वह वीर्य जल में गिरने से अत्यंत प्रकाशमान सुवर्ण का अंड हो गया.
उस अंड के मध्य से सृष्टिकर्ता चतुर्मुख लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए.
नर (भगवान) से जल की उत्पत्ति हुई है, इसलिए जल को नार कहते हैं. वह नार जिसका
पहले अयन (स्थान) हुआ, उसे नारायण कहते हैं, ये सदसद्रूप, अव्यक्त एवम नित्यकारण
हैं, इनसे जिस परुष की सृष्टि हिम वे लोक में ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध हुए. ब्रह्माजी
ने दीघ्रकाल तक तपस्या की और उस अंड के दो भाग कर दिए. एक भाग से भूमि और दुसरे से
आकाश की रचना की, मध्यम से स्वर्ग, आठों दिशाओं तथा वरुण का निवास-स्थान अर्थात
समुन्द्र बनाया, फिर महदादि तत्वों की तथा सभी प्राणियों की रचना की.
परमात्मा ने सर्वप्रथम आकाश को उत्पन्न किया और फिर क्रम से वायु, अग्नि. जल
और पृथ्वी – इन तत्वों की रचना की. सृष्टि के आदि में ही ब्रह्माजी ने उन सबके नाम
और कर्म वेदों के निर्देशानुसार ही नियत कर उनकी अलग अलग संस्थाएं बना दी. देवताओं
के तुषित आदि गण, ज्योतिष्टोमादी सनातन यज्ञ, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत,
सम एवम विषम भूमि आदि उत्पन्न कर काल के विभागों (संवत्सर, दिन, मास आदि) और ऋतुओं
आदि की रचना की. काम, क्रोध आदि की रचनाकर विविध कर्मों के सदसदविवेक के लिए धर्म
और अधर्म की और नानाविध प्राणीजगत की सृष्टि कर उनको सुख दुःख, हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों
से संयुक्त किया. जो कर्म जिसने किया था तदनुसार उनकी (इंद्र, चन्द्र, सूर्य आदि)
पदों पर नियुक्ति हुई. हिंसा, अहिंसा, मृदु, क्रूर, धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य, आदि
जीवून का जैसा स्वभाव था, वह वैसे ही उनमें प्रविष्ट हुआ, जैसे विभिन्न ऋतुओं में
वृक्षों में पुष्प, फल आदि उत्पन्न होते हैं.
इस लोक की अभिवृद्धि के लिए ब्रह्माजी अपने मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से
क्षत्रिय, उरु अर्थात जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्र को उत्पन्न किया. ब्रह्माजी
के चारो मुखों से चार वेद उत्पन्न हुए. पूर्व मुख से ऋग्वेद प्रकट हुआ, उसे वशिष्ठ
मुनि ने ग्रहण किया, दक्षिण मुख से यजुर्वेद उत्पन्न हुआ, उसे महर्षि याज्ञवल्क्य ने ग्रहण किया, पश्चिम मुख से
सामवेद नि:सृत हुआ, उसे गौतम ऋषि ने धारण किया और उत्तर मुख से अथर्ववेद
प्रादुर्भूत हुआ, जिसे लोक पूजित महर्षि शौनक ने ग्रहण किया, ब्रह्माजी के लोक
प्रसिद्ध पंचम मुख से अठारह पुराण, इतिहास और यमादि स्मृति-शास्त्र उत्पन्न हुए.
इसके बाद अपने देह के दो भाग किये. दाहिने भाग की पुरुष तथा बाएँ भाग को स्त्री
बनाया और उसमें विराट पुरुष की सृष्टि की. उस विराट पुरुष ने नाना प्रकार की
सृष्टि रचने की इच्छा से बहुत काल तक तपस्या की और सर्वप्रथम दस ऋषियों को उत्पन्न
किया, जो प्रजापति कहलाये. उनके नाम इस प्रकार हैं – (१) नारद, (२) भृगु, (३)
वशिष्ठ, (४) प्रचेता, (५) पुलह, (६) क्रतु, (७) पुलस्त्य , (८) अत्रि, (९) अंगिरा,
और (१०) मरीचि. इसी प्रकार अन्य महातेजस्वी ऋषि भी उत्पन्न हुए. अनन्तर देवता,
ऋषि, दैत्य और राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, पितर, मनुष्य, नाग, सर्प आदि
योनियों के अनेक गण उत्पन्न किये और उनके रहने के स्थानों को बनाया. विद्युत्,
मेघ, वज्र, इन्द्रधनुष, धूमकेतु, उल्का, निर्घात और छोटे-बड़े नक्षत्रों को उत्पन्न
किया मनुष्य, किन्नर, अनेक प्रकार के मत्स्य, वराह, पक्षी. हाथी. घोड़े, पशु, मृग,
कृमि, कीट, पतंग आदि छोटे-बड़े जीवों को उत्पन्न किया. इस प्रकार उन भास्कर देव ने
त्रिलोकी की रचना की.
हे राजन ! इस सृष्टि की रचना कर इस सृष्टि में जिन जिन जीवों का जो जो कर्म और
क्रम कहा गया है, उसका मलिन वर्णन करता हूँ, आप सुने.
हाथी, व्याल, मृग और विविध पशु, पिशाच, मनुष्य तथा राक्षस आदि जरायुज (गर्भ से
उत्पन्न होने वाले) प्राणी हैं. मलय, कछुए, सर्प, मगर, तथा अनेक प्रकार के पक्षी
अण्डज हैं. मक्खी, मच्छर, जूँ, खटमल आदि जीव स्वेदज हैं, अर्थात पसीने की ऊष्मा से
उत्पन्न होते हैं. भूमि को उद्भेद कर उत्पन्न होने वाले वृक्ष, औषधियां आदि
उद्भिज्ज सृष्टि है. जो फल के पकने तक रहें और पीछे सूख जाएँ या नष्ट हो जाएँ तथा
बहुत फूल या फल वाले वृक्ष हैं वे औषधि कहलाते हैं. और जो पुष्प के ए बिना ही फलते
हैं, वे वनस्पति हैं, तथा जो फूलते और फलते हैं उन्हें वृक्ष कहते हैं. इसी प्रकार
गुल्म, वल्ली, वितान आदि भी अनेक भेद होते हैं. ये सब बीज से अथवा काण्ड से अर्थात
वृक्ष की छोटी सी शाखा काटकर भूमि में गाड़ देने से उत्पन्न होते हैं. ये वृक्ष
आदि भी चेतना-शक्तिसम्पन्न हैं और इन्हें सुख-दुःख का ज्ञान रहता हैं, परन्तु पूर्व
जन्मों के कर्मों के कारण तमोगुण से आछन्न रहते हैं, इसी कारण मनुष्य की भांति बात-चीत
करने में समर्थ नहीं हो पाते.
इस प्रकार यह अचिन्त्य चराचर जगत भगवान भास्कर से उत्पन्न हुआ है. जब वह
परमात्मा निंद्रा का आश्रय ग्रहण कर शयन करता हैं, तब यह संसार उसमें लीन हो जाता
है और जब निंद्रा का त्याग करता है अर्थात जागता है, तब सब सृष्टि उत्पन्न होती है
और स्म्सर्ट जीव पूर्वक्रमानुसार अपने-अपने कर्मों में प्रवृत हो जाते हैं. वह
अव्यय परमात्मा सम्पूर्ण चराचर संसार को जागृत और शयन दोनों अवस्थाओं द्वारा बार-बार
उत्पन्न और विनष्ट करता है.
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