Monday, December 9, 2013

विषपान हेतु प्रजापतियों द्वारा भगवान शंकर की स्तुति

श्रीमद भागवत् पुराण > अष्टम स्कन्द > सातवाँ अध्याय >>


प्रजापतियों ने भगवान शंकर की स्तुति की – देवताओं के आराध्यदेव महादेव ! आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं. हम लोग आपकी शरण में आये हैं. त्रिलोकी को भस्म करने वाले इस उग्र विष से आप हमारी रक्षा कीजिये.

सारे जगत को बाँधने और मुक्त करने में एकमात्र आप ही समर्थ हैं. इसलिए विवेकी पुरुष आपकी आराधना करते हैं. क्योंकि आप शरणागत की पीड़ा नष्ट करने वाले एवं जगदगुरु हैं. प्रभो ! आपकी गुणमयी शक्ति से इस जगत की सृष्टि, स्तिथि और प्रलय करने के लिए आप अनन्त, एकरस होने पर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं. आप स्वयं प्रकाश हैं. इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्व हैं. जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैं – उनको जीवनदान देने वाले आप ही हैं. आपके अतिरिक्त सृष्टि भी और कुछ नहीं है. क्योंकि आप आत्मा हैं. अनेक शक्तियों के द्वारा आप ही जगतरूप में भी प्रतीत हो रहें हैं. क्योंकि आप इश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं.

समस्त वेद आप से ही प्रकट हुए हैं. इसलिए आप समस्त ज्ञानों के मूल स्त्रोत स्वत:सिद्ध ज्ञान हैं. आप ही जगत के आदि कारण महतत्व हैं और त्रिविध अहंकार हैं एवम आप ही प्राण, इन्द्रिय, पंचमहाभूत तथा शब्दादि विषयों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं. आप स्वय ही प्राणियों की वृद्धि और ह्रास करने वाले काल हैं, उनका कल्याण करने वाले यज्ञ हैं एवम सत्य और मधुर वाणी हैं. धर्म भी आपका ही स्वरूप है. आप ही ‘अ, उ, म ‘ इन तीनों अक्षरों से युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैं – ऐसा वेदवादी महात्मा कहतें हैं. सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है. तीनों लोकों के अभ्युदय करने वाले शंकर ! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है. आप अखिल देव स्वरूप हैं. यह काल आपकी गति है, दिशायें कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है. आकाश नाब्गी है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र है और जल वीर्य है. आपका अहंकार नीचे-ऊंचे सभी जीवों का आश्रय है. चन्द्रमा मन है और प्रभो ! स्वर्ग आपका सर है. वेदस्वरूप भगवन ! समुन्द्र आपकी कोख है. पर्वत हड्डियाँ है. सब प्रकार की औषधियां और घास आपके रोम हैं. गायत्री आदि छंद आपकी सात धातुएँ है सभी प्रकार के धर्म आपके हृदय हैं.

स्वामिन ! सद्योजातादि पांच उपनिषद ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पांच मुख हैं. उन्हीके पदच्छेद से अडतीस कलात्मक निकले हैं आप जब समस्त प्रपंच से उपरत होकर आपके स्वरूप में स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्तिथि का नाम होता है शिव. वास्तव में वही स्वयंप्रकाश परमार्थ तत्व है. अधर्म की दम्भ लोभ आदि तरंगों में आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकार की सृष्टि होती है, वे सत्व, रज और तम – आपके तीन नेत्र हैं. प्रभो ! गायत्री आदि छंदरूप स्नातन वेद ही आपका विचार है. क्योंकि आपही सांख्य आदि समस्त शास्त्रों के रूप में स्थित हैं और उनके करता भी हैं.

भगवन ! आपका पर्ण ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है. उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्वगुण है और न किसी प्रकार का भेदभाव ही. आपके उस स्वरूप को सारे लोकपाल – यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इंद्र भी नहीं जान सकते. आपने कामदेव, दक्ष के यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (किसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायेंगे) और अनेक जीव द्रोही असुरों को नष्ट कर दिया है. परन्तु यह कहने से आपकी कोई स्तुति नहीं होती. क्योंकि प्रलय के समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्र से निकली हुई आग की चिंगारी एवं लपट से जल कर भस्म हो जाता है और आप इसप्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता भी नहीं चलता. जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदय में आपके युगल चरणों का ध्यान करते रहते हैं आप स्वयं भी निरंतर ज्ञान और तपस्या में इ लीं रहते हैं. फिर भी सती के साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होने के कारण उग्र अतवा निष्ठुर बतलाते हैं – वे मूर्ख आपकी लीलाओं का रहस्य भला क्या जाने. उनका वैसा कहना निर्लज्जता से भरा है. ‘

इस कार्य और कारणरूप जगत से परे माया है और माया से भी अनन्त परे आप हैं. इसलिए प्रभो ! आपके अनन्त स्वरूप का साक्षात ज्ञान प्राप्त करने में सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं. ऐसी अवस्था में उनके पुत्रों के पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं. फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान किया है. हमलोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूप को देख रहें हैं. आपके परम स्वरूप को हम नहीं जानते. महेश्वर ! यद्यपि आपकी लीलाएं अव्यक्त हैं, फिर भी संसार का कल्याण करने के लिए आप व्यक्त रूप से भी रहते हैं.

Below is the English Translation of this Stuti:


The prajāpatis said: O greatest of all demigods, Mahādeva, Supersoul of all living entities and cause of their happiness and prosperity, we have come to the shelter of your lotus feet. Now please save us from this fiery poison, which is spreading all over the three worlds. 

O lord, you are the cause of bondage and liberation of the entire universe because you are its ruler. Those who are advanced in spiritual consciousness surrender unto you, and therefore you are the cause of mitigating their distresses, and you are also the cause of their liberation. We therefore worship Your Lordship.

O lord, you are self-effulgent and supreme. You create this material world by your personal energy, and you assume the names Brahmā, Viṣṇu and Maheśvara when you act in creation, maintenance and annihilation.
You are the cause of all causes, the self-effulgent, inconceivable, impersonal Brahman, which is originally Parabrahman. You manifest various potencies in this cosmic manifestation.
O lord, you are the original source of Vedic literature. You are the original cause of material creation, the life force, the senses, the five elements, the three modes and the mahat-tattva. You are eternal time, determination and the two religious systems called truth [satya] and truthfulness [ṛta]. You are the shelter of the syllable oḿ, which consists of three letters a-u-m.
O father of all planets, learned scholars know that fire is your mouth, the surface of the globe is your lotus feet, eternal time is your movement, all the directions are your ears, and Varuṇa, master of the waters, is your tongue.
O lord, the sky is your navel, the air is your breathing, the sun is your eyes, and the water is your semen. You are the shelter of all kinds of living entities, high and low. The god of the moon is your mind, and the upper planetary system is your head.
O lord, you are the three Vedas personified. The seven seas are your abdomen, and the mountains are your bones. All drugs, creepers and vegetables are the hairs on your body, the Vedic mantras like Gāyatrī are the seven layers of your body, and the Vedic religious system is the core of your heart.
O lord, the five important Vedic mantras are represented by your five faces, from which the thirty-eight most celebrated Vedic mantras have been generated. Your Lordship, being celebrated as Lord Śiva, is self-illuminated. You are directly situated as the supreme truth, known as Paramātmā.
O lord, your shadow is seen in irreligion, which brings about varieties of irreligious creations. The three modes of nature — goodness, passion and ignorance — are your three eyes. All the Vedic literatures, which are full of verses, are emanations from you because their compilers wrote the various scriptures after receiving your glance.
O Lord Girīśa, since the impersonal Brahman effulgence is transcendental to the material modes of goodness, passion and ignorance, the various directors of this material world certainly cannot appreciate it or even know where it is. It is not understandable even to Lord Brahmā, Lord Viṣṇu or the King of heaven, Mahendra.
When annihilation is performed by the flames and sparks emanating from your eyes, the entire creation is burned to ashes. Nonetheless, you do not know how this happens. What then is to be said of your destroying the Dakṣa-yajña, Tripurāsura and the kālakūṭa poison? Such activities cannot be subject matters for prayers offered to you.
Exalted, self-satisfied persons who preach to the entire world think of your lotus feet constantly within their hearts. However, when persons who do not know your austerity see you moving with Umā, they misunderstand you to be lusty, or when they see you wandering in the crematorium they mistakenly think that you are ferocious and envious. Certainly they are shameless. They cannot understand your activities.
Even personalities like Lord Brahmā and other demigods cannot understand your position, for you are beyond the moving and nonmoving creation. Since no one can understand you in truth, how can one offer you prayers? It is impossible. As far as we are concerned, we are creatures of Lord Brahmā's creation. Under the circumstances, therefore, we cannot offer you adequate prayers, but as far as our ability allows, we have expressed our feelings.
O greatest of all rulers, your actual identity is impossible for us to understand. As far as we can see, your presence brings flourishing happiness to everyone. Beyond this, no one can appreciate your activities. We can see this much, and nothing more.

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