भागवत पुराण > छठा स्कन्द > प्रथम व् द्वितीय अध्याय >>
भगवान के पार्षदों ने कहा – यमदूतों! यदि
तुमलोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण तथा धर्म का तत्व
सुनाओ. दंड किस प्रकार दिया जाता है? दंड का पात्र कौन है? मनुष्यों में सभी
पापाचारी दंडनीय हैं या उन में से कुछ ही?
यमदूतों ने कहा – वेदों में जिन कर्मों
का विधान किया गया है वे धर्म हैं और जिन का निषेद किया गया है वे अधर्म हैं. वेद
स्वय भगवान के स्वरूप हैं. वे उनके स्वाभाविक श्वास और प्रश्वास और स्वयंप्रकाश
ज्ञान हैं – ऐसा हमने सुना है. जगत के रजोमय, सत्वमय और तमोमय – सभी पदार्थ सभी
प्राणी अपने परम आश्रय भगवान में ही स्थित रहते हैं. वेद ही उनके गुण, नाम कर्म और
रूप आदि के अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं. जीव शरीर और मनोवृतियों से जितने
कर्म करता है, उनके साक्षी रहते हैं – सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां,
चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशायें, जल, पृथ्वी, काल और धर्म. इनके द्वारा अधर्म
का पता चल जाता है और तब दण्ड के पात्र का निर्णय होता है. पाप कर्म करने वाले सभी
मनुष्य अपने अपने कर्मों के अनुसार दंडनीय होते हैं. निष्पाप पुरुषों! जो प्राणी
कर्म करते हैं उनका गुणों से सम्बन्ध रहता ही है. इसीलिए सभी के कुछ पाप और कुछ
पुण्य होते ही हैं और देह्वान होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नही सकता. इस
लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है. देवशिरोमणियों
! सत्व, रज और तम – इन तीन गुणों के भेद के कारण इस लोक में तीन प्रकार के प्राणी
दीख पड़ते हैं – पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य – पाप दोनों से युक्त, अथवा सुखी,
दुखी और सुख-दुःख दोनों से युक्त, वैसे ही परलोक में भी उनकी त्रिविधिता का अनुमान
किया जाता है.
वर्तमान समय ही भूत और भविष्य
का अनुमान करा देता है. वैसे ही वर्तमान जन्म के पाप-पुण्य भूत और भविष्य जन्मों
के पाप-पुण्य का अनुमान करा देते हैं. हमारे स्वामी अजन्मा भगवान सर्वज्ञ यमराज
सबके अंत:करणों में ही विराजमान हैं. इसलिए वे अपने मन से ही सबके पूर्व रूपों को
देख लेते हैं. वे साथ ही उनके भावी स्वरूप का भी विचार कर लेते हैं. जैसे सोया हुआ
अज्ञानी पुरुष स्वप्न के समय प्रतीत हो रहे कल्पित शरीर को ही अपना वास्त्विक शरीर
समझता है, सोये हुए अथवा जागने वाले शरीर को भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने
पूर्वजन्मों की याद भूल जाता है और वर्तमान शरीर के सिवा पहले और पिछले शरीरों के
सम्बन्ध में कुछ भी नही जानता. सिद्धपुरुषों ! जीव् इस शरीर में पांच
कर्मेन्द्रियों से लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है, पांच ज्ञानेन्द्रियों
से रूप-रस आदि पांच विषयों का अनुभव करता है और सोलहवे मन के साथ सत्रहवां वह स्वय
मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय – इन तीनों के विषयों को भोगता
है. जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर – इन छ: शत्रुओं पर विजय
प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओं के अनुसार अनेकों
कर्म करने पड़ते हैं. वैसी स्थिति में वह रेशम के कीड़े के समान अपने को कर्म करने जाल
में जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोह का शिकार बन जाता है. कोई शरीरधारी
जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता है. प्रत्येक प्राणी के स्वाभाविक
गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते हैं. जीव अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यमय
संस्कारों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है. उसकी स्वाभाविक एवम प्रबल
वासनाएं कभी उसे माता के जैसा [स्त्रीरूप] बना देती है, तो कभी पिता के जैसा
[पुरुषरूप]. प्रकृति का संसर्ग होने से ही पुरुष अपने को अपने वास्तविक स्वरूप के
विपरीत लिंगशरीर मान बैठा है. यह विपर्यय भगवान के भजन से शीघ्र ही दूर हो जाता
है.
श्री शुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित ! भगवान के
नीतिनिपुण एवम धर्म का मर्म जानने वाले पार्षदों ने यमदूतों का यह अभ्भाष्ण सुनकर
उनसे इस प्रकार खा.
भगवान के पार्षदों ने कहा –
यमदूतों ! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में अधर्म
प्रवेश कर रहा है, क्योंकि वहां निरपराध और अदंडनीय व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड
दिया जाता है. जो प्रजा के रक्षक हैं, शासक हैं, समदर्शी और परोपकारी हैं – यदि वे ही प्रजा के प्रति विषमता का व्यवहार करने
लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी ? सत्पुरुष जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग भी
वैसा ही करते हैं. वे अपने आचरण के द्वारा जिस कर्म को धर्मानुकूल प्रमाणित कर
देते हैं, लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं. साधारण लोग पशुओं के समान धर्म और
अधर्म का स्वरूप न जानकर किसी सत्पुरुष पर विश्वास कर लेते हैं, उसकी गोद में सर
रखकर निर्भय और निश्चिन्त सो जाते हैं. वही दयालु सत्पुरुष, जो प्राणियों का अत्यंत
विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभाव से अपना हितेषी समझकर उन्होंने आत्मसमर्पण कर
दिया है, उन अज्ञानी जीवों के साथ कैसे विश्वासघात कर सकता है ?
यमदूतों ! इसने कोटि – कोटि
जन्मों की पाप-राशी का पूरा – पूरा प्रायश्चित कर लिया है. क्योंकि इसने विवश होकर
ही सही, भगवान के परम कल्याणमय [मोक्षप्रद] नाम का उच्चारण तो किया है. जिस समय
इसने ‘नारायण’ इस चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी
के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया. चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती, गुरुपत्नीगामी,
ऐसे लोगों का संसर्ग; स्त्री, रजा पिता और गाय को मरने वाला, चाहे जैसा और चाहे
जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिए यही – इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान के
नामों का उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवान के नामों के उच्चारण से मनुष्य की
बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान की उसके प्रति
आत्मीयबुद्धि हो जाती है. बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियों ने पापों के भुत से
प्रायश्चित – कृच्छचान्द्रायण आदि व्रत बतलाये हैं; परन्तु उन प्रायश्चितों से
पापी की वैसी जड से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् के नामों का, उनसे गुम्फित पदों
का उच्चारण करने से होती है. क्योंकि वे नाम पवित्र कीर्ति भगवान् के के गुणों का
ज्ञान करने वाले हैं. यदि प्रायश्चित करने के बाद भी मन फिर से कुमार्ग में – पाप
की और दोड़े, तो वह चरम सीमा का – पूरा-पूरा प्रायश्चित नहीं है. इसलिए जो लोग ऐसा
प्रायश्चित करना चाहें कि जिससे पापकर्मों और वासनाओं की जड ही उखड़ जाये, उन्हें
भगवान् के ही गुणों का ही गान करना चाहिए; क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो
जाता है.
इसलिए यमदूतों ! तुम लोग
अजामिल को मत ले जाओ. इसने सरे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते
समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है.
बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात
जानते हैं कि संकेत में [किसी दुसरे अभिप्राय], परिहास में, तान अलापने में अथवा
किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई भगवान के नामों का उच्चारण करता है तो उसके
सरे पाप नष्ट हो जाते हैं. जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय
और सांप के डसते, आग में जलते तथा चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरी-हरी’ कहकर
भगवान् के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यम यातना का पात्र नहीं रह जाता. महर्षियों
ने जानभूझ कर बड़े पापों ले लिए बड़े और छोटे पापों के लिए छोटे प्रायश्चित बतलाएं
हैं. इसमें संदेह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चितों के द्वारा वे पाप
नष्ट हो जाते हैं. परन्तु उन पापों से मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता. भगवान्
के चरणों की सेवा से वह भी शुद्ध हो जाता है. यमदूतों ! जान या अनजान में इंधन से
अग्नि का स्पर्श हो जाये तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-भूझकर या अनजान
में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं.
जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जानकर अनजान में पी ले तो भी वह अवश्य
ही पीने वाले को अम्र बना देता है, वैसे ही अनजान में उच्चारण करने पर भी भगवान् का
नाम अपना फल देकर ही रहता है [ वस्तुशक्ति क्ष्रद्धा की अपेक्षा नहीं करती]
श्री शुकदेवजी कहते हैं – राजन ! इस प्रकार
भगवान के पार्षदों ने भागवतधर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को
यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया.
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