Below is the text from VISHNU PURAN describing the age of our HINDU Deities...
प्रथम अंश >>
तीसरा अध्याय > ब्रह्मा आदि की आयु
का वर्णन>>>
श्री मैत्रेयजी बोले
– हे भगवन ! जो ब्रह्म निर्गुण, अप्रमेय, शुद्ध और निर्मलात्मा है उसका सर्ग आदि
का कर्ता होना कैसे सिद्ध हो सकता है?
श्री पराशरजी बोले –
हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! समस्त भाव पदार्थों की शक्तियाँ अचिन्त्य
ज्ञान की विषय होती हैं; [उसमे कोई युक्ति काम नहीं देती] अत: अग्नि की शक्ति उष्णता
के समान ब्रह्म की भी सर्गादि – रचना रूप शक्तियाँ स्वभाविक हैं. अब जिस प्रकार
नारायण नामक लोक पितामह भगवान ब्रह्माजी सृष्टि की रचना में प्रवृत होते हैं सो
सुनो. हे विद्वन ! वे सदा उपचार से ही उत्त्पन्न हुए कहलाते हैं. उनके अपने परिमाण
से उनकी आयु सौ वर्ष की कही जाती है. उस [सौ वर्ष] का नाम "पर" है, उसका आधा परार्ध
कहलाता है.
हे अनघ ! मैंने जो
तुमसे विष्णु भगवान का काल स्वरूप कहा था उसी के द्वारा उस ब्रह्मा की तथा और भी
जो पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव हैं उनकी आयु का परिमाण किया जाता है. हे
मुनि श्रेष्ठ ! पन्द्रह ‘निमेष’ को ‘काष्ठा’ कहते हैं, तीस काष्ठा की एक ‘कला’ तथा
तीस कला का एक ‘महूर्त’ होता है. तीस महूर्त का मनुष्य का एक दिन-रात कहा जाता है
तथा उतने ही दिन-रात का दो पक्षयुक्त एक मॉस होता है. छ: महीनों का एक अयन और
दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिल कर एक वर्ष होता है. दक्षिणायन देवताओं की
रात्रि है और उत्तरायण दिन. देवताओं के बाढ़ हज़ार वर्षों के सतयुग, त्रेता, द्वापर
और कलियुग नामक चार युग होते हैं. उनका अलग-अलग परिमाण मैं तुम्हें सुनाता हूँ. पुरातत्व
जानने वाले सतयुग आदि का परिमाण क्रमश: चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाते
हैं. प्रत्येक युग के पूर्व उतने ही सौ साल की संध्या बताई जाती है और युग के पीछे
उतने ही परिमाण वाले संध्यांश होते हैं [अर्थात सतयुग आदि की पूर्व क्रमश: चार,
तीन, दो और एक सौ वर्ष की संध्यायें और इतने ही वर्ष के संध्यांश होते हैं. हे
मुनिश्रेष्ठ ! इन संध्या और संध्यांशों के बीच का जितना काल होता है, उसे ही सतयुग
आदि नाम वाले युग जानना चाहिए.
हे मुने ! सतयुग,
त्रेता, द्वापर और कली ये मिल कर चतुर्युग कहलाते हैं; ऐसे हजार चतुर्युग का
ब्रह्मा का एक दिन होता है. हे ब्रह्मन ! ब्रह्मा के एक दिन में चोदह मनु होते
हैं. उनका कालकृत परिमाण सुनो. सप्तर्षि, देवगण, इंद्र, मनु और मनु के पुत्र राजा
लोग [पुर्व कल्प अनुसार] एक ही काल में रचे जाते हैं एक ही काल में उनका संहार
किया जाता है. हे सत्तम ! इकह्त्तर चतुर्युग से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता
है. यही मनु और देवता आदि का काल है. इस प्रकार दिव्य वर्ष गणना से एक मन्वन्तर
में आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते हैं. तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष गणना के
अनुसार मन्वन्तर का परिमाण पूरे तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे अधिक
नही. इस काल का चोदह गुणा ब्रह्मा का दिन होता है, इसके अनन्तर नैमितिक नाम वाला
ब्राह्म-प्रलय होता है.
उस समय भूर्लोक,
भुवर्लोक और स्वर्लोक तीनो जलने लगते हैं और महर्लोक में रहने वाले सिद्धगण अति
संतप्त होकर जनलोक को चले जाते हैं. इस प्रकार त्रिलोकी के जलमय हो जाने पर जनलोक
वासी योगियों द्वारा ध्यान किये जाते हुए नारायण रूप कमलयोनि ब्रह्माजी त्रिलोकी
के ग्रास से तृप्त होकर दिन के बराबर ही परिमाण वाली उस रात्रि में शयन करते हैं.
इसी प्रकार [पक्ष, मॉस आदि ] गणना से ब्रह्मा का एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते हैं.
ब्रह्मा के सौ वर्ष ही उस महात्मा [ब्रह्मा] की परमायु है. हे अनघ ! उन ब्रह्मा जी
का एक परार्ध बीत चुका है. उसके अंत में पाद्म नाम से विख्यात कल्प हुआ था. हे द्विज
! इस समय वर्तमान उनके दुसरे परार्ध का यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है.
Here's the English Translation of this Chapter from Vishnu Puran
MAITREYA said :—"How can Brahma, who is devoid of quality
and confineless and pure and unblamed of soul, possibly engage in creation, etc.
?"
Parashara said,— " As the powers of many an
object are incomprehensible and incapable of being construed to sense, the powers
of creation etc, possessed by Brahma, like the heat of fire, are also so. O foremost
of ascetics, hearken how the Professor of the eight kinds of wealth becomes
engaged in creation. Wise one, in consequence of the eternal reverend Vishnu coming
into being from objects, as Brahma the Grand-father, he is designated as
produced. According to the measure set by him human life is known as consisting
of an hundred years. This (age) is called para, and the half thereóf Parardha.
O Sinless one, do thou listen to me as I mention unto thee
the divisions of that which I have named unto thee as the Time-form of Vishnu,—
in relation to Him as well as other creatures, and mobile and immobile objects,
and the seas and all other things, O best of men. O chief of ascetics, a kásthá
is composed of fifteen nimeshas ; thirty kásthas make up' a kalá ; and thirty
kalas a muhurta ; and as many muhurta make up a day and a night unto human beings.
As many days and nights form a month; and a month consists of two fortnights. Six
months form an ayana; and a year is composed of two ayanas, one northern, the
other southern. The southern ayana is the night of the celestials, as the northern
is their day. The period of twelve thousand years of the deities constitute the
four Yugas, viz., Krita, Treta and the others. Do thou understand that Chronologists
say that four, three, two, and one thousand divine years successively compose Krita
and the other Yugas. An hundred divine years are said to constitute the first twilight
as another hundred years the last, of the Yuga. The space that intervenes between
these twilights goeth by the name of Yuga, embracing Krita, Tretá and the rest.
And anchoret, a thousand of the four Yugas, Krita, Treta,
Dwapara and Kali, constitute one day of Brahmá. One day of Brahma Brahmana, compriseth
four and ten reigns of the Manus. Listen to the chronology thereof! The seven saints,
the celestials, Sakra, Manu, and his sons—kings all of them—are created at the same
time and, as formerly, are destroyed at the same time. O excellent one, a little
over seventy-one four Yugas constitute a Manwantara—the period of Manu as well
as the gods.
Manwantara takes up over eight lakh and fifty-two thousand years;
and, twice-born one, full thirty kotis, above sixty-seven niyutas and about twenty
thousand human years. Ten and fourteen such periods form one day of Brahma. Then
comes on his sleep and at the end thereof, the universal dissolution. And then all
the trinue vvorld, comprising Bhur, Bhuva and the rest, are in conflagration, and
the dwellers of the regions of Maha exercised with the heat, resort to the
regions of Jana. On the three regions being reduced to one sheet of sea, that deity,
the lotus-sprung Brahmá instinct with Náráyana, contemplated by the Yogis of Janasthána,—with
the intention of swallowing up the three worlds, —lieth down on the bed (formed by) the serpent. And having spent
the night measuring that period, at the end thereof he begins anew the work of
creation. This is the year of Brahmá and thus is the space of his hundred years;
and the life of that highsouled one is an hundred (such) years. O thou without sin,
one half of Brahmá's life is spent. On the expiration thereof passeth away a Mahákalpa—which
is called Pádma. O twice-born one, this is the Kalpa distinguished as Varaha belonging
to the second Paráddha, which is present."
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