Saturday, September 1, 2012

दान का तत्व | Essence of Benefaction


Today I read this interesting chapter from "Skand Puran" describing the basic facts about benefaction ( दान ). This chapter tells us a story of Saint Naarad, who wished to donate some auspicious and Holly land to the most respectable Brahmins. Naarad found a place of pilgrimage named "Stambh" near the river Mahi. This land was owned by the King Dharamvarma, Saint Naarad knew that the king will donate that land to him, but Naarad did not want to own this land by requesting the King for a benefaction.
( कन्या से तथा सूद, व्यापार खेती तथा याचना से मिला हुआ धन शवल कहलाता है जो कि मध्यम श्रेणी का होता है. मुनियों के लिए केवल वेदों को पढ़ा कर दक्षिण में मिला हुआ धन ही उत्तम कहा है.)
While Naarad was thinking about his options, some saints and hermits reached that place for the Holly bath in the river. These saints informed Naarad about the penance by King Dharamvarma. At the completion of hispenance, told him a shloka regarding the essence of Donation. However the King could not understand that shloka and had announced donating seven lakh cows , thesame number of gold coins and seven villages to anyone who can completely explain the true meaning of this shloka.
" दान के दो हेतु, छह अधिष्ठान, छह अंग, दो प्रकार के परिणाम, चार प्रकार, तीन भेद और तीन विनाश साधन हैं ।"
The Naarad went to the King and explained the meaning of this shloka to his satisfaction. Later, the King found out the true identity of the great saint Naarad, and fulfilled his announcement. 
Below is the HIndi translation of Naarad's explanation of this shloka, describing the true essence of Benefaction, from the "Skand Puran". Anyone who understands and follows these principles of Benefaction will definitely receive the great benefits.
नारद बोले: 'राजन ! दान के जो दो हेतु हैं, उन्हें सुनिए -- दान का थोडा  या बहुत होना अभ्युदय का कारण नहीं होता, अपितु श्रद्धा और शक्ति ही दान की वृद्धि और क्षय में कारण होती हैं। इनमें से श्रद्धा के विषय में यह श्लोक है - शरीर को बहुत क्लेश देने से तथा धन की राशियों से सूक्ष्म धर्म की प्राप्ति नहीं होती। श्रद्धा ही धर्म और अद्भुत तप है, श्रद्धा ही स्वर्ग और मोक्ष है, तथा श्रद्धा ही यह सम्पूर्ण जगत है।  यदि कोई बिना श्रद्धा  के अपना सर्वस्व दे दे अथवा अपना  ही निछावर कर दे तो भी वः उसका कोई फल नहीं पाता है। देह धारियों में उनके स्वभाव के अनुसार होने वाली श्रद्धा तीन प्रकार की होती है - सात्विकी, राजसी और तामसी।सात्विकी श्रद्धा पूजा करते हैं। राजसी श्रद्धा वाले यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हैं तथा तामसी श्रद्धा वाले मनुष्य प्रेतों भूतों और पिशाचों की पूजा करते हैं। 

शक्ति के विषय में यह श्लोक है --  के भरण पोषण से जो अधिक हो; वही धन दान करने योग्य है - उसी से वास्तविक धर्म की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत करने पर यह विष के समान हानिकारक होता है और दाता का धर्म अधर्म में परिणत हो जाता है। जो भरण पोषण करने योग्य व्यक्तियों को कष्ट देकर किसी मृत व्यक्ति के लिए श्राद्ध करता है; उसका किया हुआ यह श्राद्ध उसके जीते जी अथवा मरने पर भी भविष्य में दुःख का कारण होता है। जो अत्यंत तुच्छ हो अथवा जिसपर सबका अधिकार हो, वह वस्तु 'सामान्य' कहलाती है। खिन से मांग कर लायी हुई वस्तु को 'वाचित' कहते हैं। दी हुई वस्तु 'दान' के नाम से जानी जाती है। दान में मिली हुई वस्तु को 'दान-धन' कहते हैं। जो धन एक के यहाँ धरोहर रखा गया हो और रखने वाले ने उसे पुन: दुसरे के यहाँ रख दिया हो उसे 'अन्वाहित' कहते हैं। जिसे किसी के विशवास पर उसके यहाँ छोड़ दिया जाये वह धन 'निक्षित' कहलाता है। वंशजों के होते हुए भी जो अपना सब कुछ दुसों को दे देना 'सान्यव सर्वस्व दान' कहलाता है। तथा बंधक रखी गयी वस्तु का दान। विद्वान पुरुषों को चाहिए की वे आपत्ति काल में भी उपर्युक्त नव प्रकार की वस्तुओं का दान ना करे। 

राजन ! अब अधिष्ठानों का वर्णन सुनों। दान के अधिश्तन छ: हैं। उन्हें बताता हूँ -- धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय। सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रख क्र केवल धर्म बुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को जो दान दिया जाता है, उसे 'धर्म दान' कहते हैं। मन में कोई प्रयोजन रख कर किसी प्रसंगवश जो कुछ दिया जाताहै, उसे 'अर्थ-दान' कहते हैं। वह इस लोक में ही फल देने वाला होता है। स्त्री समागम, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी व्यक्तियों को प्रयत्न पूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह 'काम-दान' कहलाता है। भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्जा वश देने की प्रतिज्ञा करके उन्हें जो कुछ दिया जाता है,वह 'लज्जा-दान' माना गया है। कोई प्रिय कार्य देख कर अथवा प्रिय समाचार सुनकर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है, उसे महात्मा पुरुष 'हर्ष-दान' कहते हैं। निंदा, अनर्थ, और हिंसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश होकर जो कुछ दिया जाता है, उसे 'भय - दान' कहते हैं।

राजन ! अब दान के छ: अंगों का वर्णन सुनों -- दाता, प्रतिग्रहीता, शुद्धि, धर्मयुक्त देय वस्तु, देश और काल --  यह दान के छ: अंग माने गए हैं। दाता निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखने वाला, व्यसन रहित, पवित्र और सदा अनिन्दनीय कर्म से अपनी आजीविका चलाने वाला होना चाहिए। सरलता से रहित, श्रद्धा हीन, दुष्टात्मा दुर्व्यसनी झूठी प्रतिज्ञा करने वाला तथा बहुत सोने वाला दाता तमोगुणी और अधम माना जाता है। जिसके कुल, विद्या और आचार तीनों उज्ज्वल हों, जीवन निर्वाह की वृति भी शुद्ध और सात्विक हो, जो दयालु, जितेन्द्रिय तथा योनि दोष से मुक्त हो वह ब्राह्मण दान का उत्तम पात्र कहा जाता है। याचकों को देखकर सदा प्रसन्न मुख हो उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना तथा उनमें दोषदृष्टि ना रखना -- ये सब सदगुण दान में शुद्धि कारक माने गए हैं। जो धन किसी को सता कर ना लाया गया हो, अत्यंत क्लेश उठाये बिना अपने प्रयत्न से उपार्जित कियागया हो, वह थोडा हो या अधिक, वही  सेने योग्य बताया गया है। किसी से साथ कोई धार्मिक उद्देश्य लेकर जो वस्तु दी जाती है, उसे धर्मयुक्त देय कहते हैं। यदि देय  वस्तु उपरोक्त विशेषताओं से शून्य हों तो उसके दान से कोई फल नहीं होता। जिस देश या काल में जो-जो वस्तु दुर्लभ हों, उस उस पदार्थ का दान करने के लिए वही  वही देश और काल क्ष्रेष्ट हैं; दुसरे नहीं। 

अब दान के दो फलों का वर्णन सुनों। महात्माओं ने दान के दो परिणाम बतलाये हैं। उनमेंसे एक तो परलोक के लिए होता है और एक इहलोक के लिए होता है। क्ष्रेष्ठ पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, उसका परलोक में भोग होता है और असत पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, वह दान यहीं भोगा  जाता है। 

अब दान के चार प्रकारों का वर्णन सुनों। ध्रुव, त्रिक, काम्य और नैमितिक -- इस क्रम  से द्विजों ने दान मार्ग को चार प्रकार का बताया है। कुआँ बनवाना, बगीचे लगवाना और पोखरे खुदवाना आदि कार्यों में, जो सबके उपयोग में आते हैं, धन लगाना 'ध्रुव' कहा गया है। प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है, उस नित्य दान को ही 'त्रिक' कहते हैं। सन्तान, विजय, ऐश्वर्य, स्त्री और बल आदि के निमित तथा इच्छा की पूर्ति के लिए जो दान किया जाता है, वह 'काम्य' कहलाता है। 'नैमितिक' दान तीन प्रकार का बताया है। वह होम से रहित होता है। जो ग्रहण और संक्रान्ति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है, वह कालापेक्ष नैमितिक दान है। श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से जो दान किया जाता है, वह क्रियापेक्ष नैमितिक दान है। संस्कार और विद्या-अध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा जो दान दिया जाता है, वह गुनापेक्ष नैमितिक दान है। 

अब दान के तीन भेड़ों का प्रतिपादन किया जाता है -- आठ वस्तुओं के दान उत्तम माने गये हैं। विधि के अनुसार किये हुए चार दान मध्यम और शेष कनिष्ठ माने गये हैं। गृह मन्दिर या महल, विद्या, भूमि गौ, कूप, प्राण और सुवर्ण -- इन वस्तुओं का दान अन्य दानों की अपेक्षा उत्तम है। अन्न, बगीचा, वस्त्र और अश्व इन मध्यम श्रेणी के द्रव्यों को देने यह मध्यम दान माना गया है। जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ और पत्थर आदि -- इन वस्तुओं के दान को श्रेष्ठ पुरुषों ने कनिष्ठ दान कहा है। ये दान के तीन भेद बताये गये हैं।

अब दान के तीन हेतुओं को सुनों -- जिसे देकर पीछे पश्चाताप किया जाये, जो अपात्र को दिया जाये तथा जो बिना श्रद्धा के अर्पण किया जाये, वह दान नष्ट हो जाता है। पश्चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा - ये दान के नाशक हैं। यदि दान देकर पश्चाताप किया जाये तो यह आसुर-दान है, जो निष्फल माना गया है। अश्रद्धा से जो कुछ दिया जाता है, वह राक्षस - दान है, जो व्यर्थ हो जाता है। ब्राह्मण को डांट फटकार कर या कटु शब्द सुनकर जो दान दिया जाता है अथवा दान देकर जो ब्राह्मण को कोसा जाता है, वह पैशाच दान माना गया है। उसे भी व्यर्थ ही समझना चाहिए। ये तीनों भाव दान के नाशक हैं।

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